रविवार, 21 अगस्त 2011

झारखंड में भाजपा और उसकी सरकार को आईना दिखा रहे हैं पूर्व मुख्यमंत्री रधुवर दास

झारखंड में भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व मुख्यमंत्री श्री रघुवर दास राज्य भाजपा और सरकार के कार्यकलापों पर खुलकर बोल रहे हैं। वह जहां कहीं बोलते हैं, भाजपा कार्यकर्त्ताओं की ढेर सारी तालियां बटोरते हैं। कारण? रघुवर दास कहते हैं कि वह जो कुछ कह रहे हैं, वह भाजपा के जमीनी स्तर के कार्यकर्त्ताओं की आवाज है।
श्री दास कहते हैं, आज झारखंड में भाजपा संगठन राज्य सरकार की पिछलग्गू बन गया है। वह सरकार व जनता के बीच सेतु का काम नहीं कर रहा है।
सरकार का नेतृत्व भाजपा कर रह है, इसलिए जनता भाजपा की ओर आस भरी निगाह से देख रही है। पार्टी के नेता संगठन हित के बजाय व्यक्तिगत हित के लिए काम कर रहे हैं। पैसों के बल पर पार्टी में लोग पदाधिकारी बन रहे हैं। इससे पार्टी का भला नहीं होगा। भाजपा में विकृति आई है। हमें इस विकृति को सुधारना होगा और पैसे के बल पर पदाधिकारी बने लोगों का तिरस्कार करना होगा।
संगठन में बड़े नेताओं की गणेश परिक्रमा करने वालों को पद मिल रहा है लेकिन ऐसे लोगों को ध्यान रखना चाहिए कि पद तो गणेश परिक्रमा से मिल जाएगा, कार्यकर्ताओं का सम्मान नहीं मिलेगा।
राज्य सरकार सिर्फ घोषणा कर रही है। इससे काम नहीं चलेगा धरातल पर काम भी करना होगा। सिर्फ मुद्दे उछाल कर अब चुनाव नहीं जीत सकते। यह गलती उपचुनाव में हुई, हम हार गए।
प्रदेश में भाजपा की कमान संभाले नेता श्री दास के बयानों पर बोले भी तो क्या? वह तो केवल इतना ही बोल पाते हैं, पार्टी के भीतर के असंतोष को संगठन के बीच बंद कमरे में बोला जाना चाहिए, न कि सार्वजनिक मंच पर

बुधवार, 14 जुलाई 2010

साधारण बीमा कंपनियों का यह कैसा खेल?



देश की साधारण बीमा कंपनियों के खेल की अंतिम परिणति आम जनता की जेबे हल्की कराने के रूप में हुई है। स्वास्थ्य बीमाधारकों से किए गए करार को एक झटके में तोड़कर बड़े शहरों के नामचीन अस्पतालों में इलाज कराने वालों को कैशलेस की सुविधा वापस लेने वाली इन कंपनियों ने चार दिनों तक चले हाई वोल्टेज ड्रामें के बाद इस शर्त्त के साथ कैशलेस सुविधा बहाल करने को तैयार हुई हैं कि अब यह सुविधा प्राप्त करने वालों को पहले से कहीं ज्यादा प्रीमियम देना होगा।

मुंबई में सीआईआई की पहल पर इंश्योरेंस कंपनियों तथा हेल्थकेयर इंडस्ट्री की 12 जुलाई 2010 को हुई बैठक में कैशलेस सुविधा वापस करने की बात तय हुई है। सरकारी इंश्योरेंस कंपनियों जैसे ओरियंटल इंश्योरेंस, न्यू इंडिया इंश्योरेंस नेशनल इंश्योरेंस और यूनाइटेड इंश्योरेंस ने अब कैशलेस सुविधा वाले अस्पतालों की संख्या बढ़ाने का भी फैसला किया है।

अस्पतालों द्वारा बीमाधारक मरीजों के इलाज के बहाने अनैतिक तरीके से अपनी तिजोरी भरने संबंधी एक सही मुद्दे की आड़ में बीमा कंपनियों ने वही किया, जिसका खाका उन्होंने आज से कोई छह महीने पहले तैयार कर लिया था। दरअसल साधारण बीमा कंपनियों ने सरकार के पास एक प्रस्ताव भेजा हुआ, जिसमें स्वास्थ्य बीमाधारकों से लिए जाने वाले मौजूदा प्रीमियम की नीति में बदलाव करके तीन प्रकार से प्रीमियम लेने का प्रस्ताव है।

साधारण बीमा कंपनियों के प्रस्ताव के मुताबिक जो बीमाधारक टीपीए द्वारा बिना सवाल खड़ा किए त्वरित कैशलेस सुविधा चाहेंगे उन्हें कुल अस्पताल खर्च का पच्चीस फीसदी रकम देनी होगी। दूसरी क्षेणी में वे बीमाधारक होंगे, कुल अस्पताल खर्च का दस प्रतिशत चार्ज किया जाएगा। इस श्रेणी के बीमाधारकों को पूरी छानबीन करके कैशलेस की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी। इस प्रक्रिया में बीमाधारकों को 24 घंटे तक इंतजार करना पड़ सकता है। तीन श्रेणी उन बीमाधारकों की होगी जो बीमा कराते समय केवल प्रीमियम देंगे। अस्पताल खर्च का कुछ भी हिस्सा वहन नहीं करेंगे। ऐसे बीमाधारकों से ज्यादा प्रीमियम लिया जाएगा।

साधारण बीमा कंपनियों ने अभी अंतिम विकल्प की घोषणा की है। लेकिन न्यू इंडिया इंश्योरेंस के सीएमडी एम रामदास ने देश में हेल्थ इंश्योरेंस को सुलभ बनाने के लिए सभी को मिलकर काम करना होगा कहकर संकेत दे दिया है कि आने वाले समय में सरकार की हरी झंडी मिलते ही बाकी दो विकल्पों को भी सार्वजनिक कर दिया जाएगा। मेरा मानना है कि अस्पतालों से कुछ समय के लिए कैशलेस सुविधा वापस लिए जाने का खेल सरकार को विश्वास में लेकर किया गया। वरना कोई भी सरकारी कंपनी देश की करोड़ों जनता से जुड़े मामले में जनता को विश्वास में लिए बिना और बीमाधारकों से किए गए करार को बीच में तोड़कर तानाशाह की तरह फैसला नहीं कर सकती थी।

देश के बड़े अस्पतालों और साधारण बीमा कंपनियों के ताजा विवाद से यह संदेश देने की कोशिश की गई कि चूंकि निजी अस्पतालों पर सरकार का नियंत्रण नहीं है और सरकार चाहती है कि कैशलेस की सुविधा जनता को मिलती रहे, इसलिए बीच का रास्ता निकाला जा गया है, जो जनहित में है। जबकि हकीकत यह है कि प्रीमियम बढ़ाने संबंधी प्रस्ताव लंबे समय से तैयार है।

खैर आम जनता को हर आर्थिक मोर्चे पर ठगा जाता है और लूट-खसोट के कारण खाली हुए सरकारी खजाने को भरने के लिए अतार्किक ढ़ंग से करारोपण किया जाता है। अब जनता इसके लिए अभ्यस्त भी हो गई है। लेकिन इस पूरे प्रकरण से सामने आया अहम् सवाल, जो अस्पतालों की अनैतिक लूट से संबंधित है, सामाजिक सरोकारों वाले लोगों के लिए बड़ा मुद्दा है। सरकार से निजी अस्पतालों की मनमानी पर रोक लाने की उम्मीद करना बेकार है। उसके दोनों हाथ में लड्डू है। स्वास्थ्य बीमाधारकों से ज्यादा प्रीमियम मिला या अस्पताल खर्च का एक हिस्सा बीमाधारकों से मिल गया तो ठीक और अपना बिजनेस मार खाने के डर से निजी अस्पताल वाले कैशलेस सुविधा बहाल कराने के लिए लाबिंग करें तो ठीक। निजी अस्पतालों द्वारा मरीजों के साथ की जा रही ज्यादती पर वह यह कहकर हाथ खड़े कर लेगी कि उन पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है।

जब साधारण बीमा कंपनियों ने निजी अस्पतालों की लूट के मामले को मुद्दा बनाया तो सबने देखा भी कि सरकार इस विषय पर चुप रह गई। उसने भूल से भी नहीं कहा कि साधारण बीमा कंपनियों द्वारा उठाया गया मुद्दा गंभीर है और इसकी जांच करवाई जाएगी। ताकि बीमा कंपनियों और मरीजों को लूट का शिकार नहीं होना पड़े। अब जनता के मन में सवाल हो सकता है कि आर्थिक उदारीकरण के दौर में क्या सरकार के लिए जनता के स्वास्थ्य जैसा बुनियादी मुद्दा गायब है। जनता सोच सकती है कि सरकार निजी अस्पतालों को सस्ती दरों पर महंगी जमीन उपलब्ध कराती है, उपकरणों के आयात पर करों में छूट देती है और ढेर सारी सुविधाएं देती है। सरकारी कर्मचारियों को इन निजी अस्पतालों में इलाज कराने की अनुमति से निजी अस्पतालों की झोली भरती है। जनता सोच सकती है कि इन सुविधाओं में से एक भी वापस लिय़ा गया तो निजी अस्पताल वालों के लिए भारी पड़ जाएगा। फिर सरकार जनहित में कोई स्टैंड क्यों नहीं ले पाती?

जनता की इस सोच पर कोई क्या बोले? जनता कुछ भी सोचे, उसने जिन्हें अपने हितों की रक्षा के लिए बोलने का अधिकार दिया हुआ है आर्थिक उदारीकरण के प्रभाव में उनकी भी जुबान तो सिल गई है। फिर विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले इस देश में सरकार के अंग मनमानी कर रहे हैं और जनता की सोच को वाणी नहीं मिल पा रही है तो अचरज की क्या बात है? लेकिन इन तमाम कारकों के बावजूद जनता अपने को छले जाने और ठगे जाने के मुद्दे पर चिंतन भी करने लगे तो निजी अस्पतालों की मनमानी पर रोक या नियंत्रण मजबूरी हो जाएगी। फिर साधारण बीमा कंपनियों के लिए भी प्रीमियम बढ़वाने के लिए भविष्य का एक मुद्दा छिन जाएगा।